नेपाल भारत के साथ सिर्फ़ भौगोलिक रूप से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि वो सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी जुड़ा हुआ है, जिसे लोकोक्तियों में 'रोटी-बेटी का संबंध' भी कहा जाता है। पिछले कुछ समय में रोटी-बेटी के साथ-साथ इसमें क्रांति भी जुड़ गई है. अर्थात नेपाल में जो भी राजनीतिक या सामाजिक क्रांति हुई हैं उसमें भारत और भारत की जनता का सहयोग रहा है। उसी तरह से भारत में राजनीतिक परिवर्तन के क्रम में नेपाल आश्रय स्थल रहा है और नेपाल की जनता का सहयोग रहा है. दक्षिण एशिया में भी विभिन्न देशों के बीच आपसी संबंध हैं और उनका साझा इतिहास रहा है लेकिन नेपाल के मामले में ये अलग है. ब्रिटिश इंडिया के पहले से उसके संबंध रहे हैं। नेपाल और भारत सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से ही जुड़ा नहीं रहा है, बल्कि दोनों देशों के बीच प्राकृतिक संबंध भी रहा है क्योंकि हिंद महासागर से निकला मॉनसून हिमालय में टकराता है और उससे बारिश होती है। हिमालय की पहाड़ी शृंखलाओं से निकली नदियाँ उत्तर भारत की ज़मीन को उर्वर करती हैं। दोनों देशों के लोग दोनों देशों में रोज़ी-रोटी कमाते हैं और आर्थिक क्रियाकलाप करते हैं. साथ ही उनके वैवाहिक संबंध भी हैं।
दोनों देशों के बीच अद्वितीय रिश्ते रहे हैं
रोटी-बेटी के अलावा दोनों देशों के रिश्तों को खुली सीमा अद्वितीय बनाती रही है, जो दक्षिण एशिया में किसी दो देशों के बीच नहीं है। इसके अलावा दोनों देशों की सीमा के बीच गाँवों की बसावटें इस तरह से हैं कि इसका पता नहीं लगाया जा सकता कि कौन नेपाल का हिस्सा है और कौन भारत का है। इलाक़े में राज्य की सीमाएँ बदलती रही हैं. वर्तमान सीमा 1816 की सुगौली संधि के बाद अस्तित्व में आई जो नेपाल और ब्रिटिश इंडिया के बीच हुई थी. लेकिन यहाँ समाज पहले से मौजूद था जो मैथिली, भोजपुरी और अवधी समाज था। नेपाल-भारत के संबंध को इन समाजों और खुली सीमा ने और मज़बूत किया. अगर ये खुली सीमा न होती तो दोनों देशों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक संबंध इतने मज़बूत न हो पाते। जब नए राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई तो वो समाज पर हावी होने लगा. स्वाभाविक है कि राज्य की अपनी सीमाएँ हैं और उसका अपना संविधान होता है।
मधेशियों पर संदेह किया जाता है?
यह सीमा रेखा काग़ज़ पर खींची गई एक राजनीतिक बाउंड्री है. आरोप ये है कि राजनीतिक सीमा के कारण सीमावर्ती इलाक़ों में रहने वालों के प्रति केंद्र का रवैया हमेशा उपेक्षापूर्ण और संदेह का रहता है।
नेपाल-भारत की सीमा पर रहने वाले सिर्फ़ बहुसंख्यक मधेशी नहीं हैं बल्कि सिक्किम और उत्तराखंड से सटे पहाड़ी इलाक़े के लोग भी हैं। इनका भारत के साथ आत्मीय लगाव है. भारत और नेपाल का सीमाई इलाक़े के लोगों को देखने का अलग चश्मा रहा है. लंबे समय तक नेपाल की सीमा से लगा बिहार-उत्तर प्रदेश का इलाक़ा काफ़ी पिछड़ा रहा। बीते डेढ़ दशकों में इन सीमाई क्षेत्रों में सड़क-संचार की सुविधाएँ बढ़ी हैं। वहीं, नेपाल के तराई इलाक़े में चार दशक पहले विकास अधिक हुआ था लेकिन बीच का तराई इलाक़ा विकास में पिछड़ गया. इस इलाक़े के लोगों को भारत-नेपाल के संबंधों में हमेशा परीक्षा देनी पड़ी है।
भारत और नेपाल अपनी रूचि के हिसाब से संबंधों का निर्माण करते रहे हैं और सीमांचल के लोगों की अपेक्षाएँ टूटती रही हैं। नए संविधान के गठन के समय मधेशियों ने आंदोलन किया. संविधान किसी देश की राजनीतिक यात्रा तय करती है. संविधान सभा में मांग की गई कि मधेशी बहुल राज्य की बनावट ऐसी हो, जहाँ राष्ट्रीयता के सवाल पर उन्हें परीक्षा न देनी पड़े। सीमा पर रहने वाले लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक एकबद्धता अपने पुराने समाज से होती है जो मैथिल, भोजपुरी और अवधी समाज रहा है। लेकिन राज्य या केंद्र को लगता है कि इन लोगों की एकबद्धता पूरी तरह उधर है, इसीलिए जब भी भारत के साथ संबंधों की बात आती है तो उन लोगों को शंका की नज़र से देखा जाता है।
मधेशी आंदोलन को भारत के लोगों की सहानुभूति और समर्थन रहा है. इस पर नेपाल सरकार को लगता है कि जब तक उधर के लोगों की सहानुभूति, एकबद्धता रहेगी, तब तक मधेशियों की ओर से केंद्रीय वर्चस्व में हस्तक्षेप होता रहेगा, जो एक संदेह की अवस्था है।
दोनों देश सीमाई यथार्थ को समझते हैं?
भारत और नेपाल ने सीमाई यथार्थ को समझना नहीं चाहा है. कोरोना संकट के समय खुली सीमा को एक वाहक के तौर पर समझा गया. इसके साथ अछूत की तरह व्यवहार किया गया और इसे बंद कर दिया गया जो ज़मीनी हक़ीक़त के ख़िलाफ़ था। दोनों देशों की सीमा के बीच घर और बस्तियां ऐसी हैं कि आपको पता नहीं चलेगा कि कौन किस देश में हैं. दोनों देशों के लोग एक-दूसरे देशों में काम करते हैं. सीमा जब बंद कर दी गई तो दोनों तरफ़ लोग फँस गए। दोनों देशों के लोगों को एक-दूसरों को दे दिया जाना चाहिए था. बहुत दिनों तक नेपाल में भारतीय लोगों और भारत में नेपाली लोगों को कोरोना के लिए दोषी बताया गया. कई लोगों ने जंगल और नदियों से सीमा पार की। आज भी नेपाल-भारत सीमा इलाक़े में हर जगह लोग फँसे हुए हैं. दोनों तरफ़ कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ी है।
कालापानी-लिपुलेख पर क्या सोचते हैं मधेशी?
नेपाल सरकार मानती है कि कालापानी-लिपुलेख निश्चित रूप से उसका सीमाई इलाक़ा है. नेपाल का जब भी संविधान आया, हर बार इस पर चुप्पी रही. मधेशी आंदोलन के क्रम में भी लाए गए संविधान में कालापानी-लिपुलेख को नक़्शे में शामिल नहीं किया गया था। मधेश के इलाक़े के लोगों का भी कहना है कि नेपाल सरकार उसको अपना हिस्सा मानती है तो वो उसका ही है. हालाँकि, मधेशियों की मांग है कि उनकी मांगों को भी संविधान संशोधन में शामिल किया जाए।
संविधान निर्माण के समय मधेशियों ने बलिदान दिया. मधेशियों की मांग रही है कि संविधान सभा से संविधान निर्माण हो लेकिन उसमें मधेशियों की भावनाओं को भी उसमें जोड़ा जाए क्योंकि नेपाल बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक है और उसकी प्रादेशिक संरचना होनी चाहिए। मधेशियों की मांग रही कि राज्य की संरचना समावेशी हो, यहाँ की भाषा को मान्यता हो और नागरिकता की प्रक्रिया सहज हो। आज तक संविधान में इन मांगों को शामिल नहीं किया गया लेकिन अब मधेशियों का कहना है कि ज़मीन के लिए जब संविधान में संशोधन हो सकता है तो उनमें ये मांगें क्यों नहीं शामिल की जा सकती हैं। मधेशी मांग कर रहे हैं कि नए मानचित्र, नए चिन्ह को वो संविधान में शामिल करने के लिए राज़ी हैं लेकिन उनकी मांग को भी संविधान में शामिल किया जाए ताकि वो कल राष्ट्रीय एकबद्धता के साथ पड़ोसी देश से बात कर सकते हैं। कालापानी-लिपुलेख के विवादित क्षेत्र का मुद्दा पहले केवल नेपाल की मीडिया और राजनीतिक दल उठाते थे लेकिन पहली दफ़ा ऐसा हुआ जब सरकार ने ऐसा क़दम उठाया है. यह निश्चित रूप से ऐतिहासिक क़दम है जिस पर नेपाल के सभी राजनीतिक दल एकमत हैं। नेपाल-भारत के नेतृत्व ने समझदारी दिखाते हुए इस पर कूटनीतिक बहस करने के संकेत दिए हैं लेकिन भारतीय मीडिया ने नेपाल को इस तरह से पेश किया जैसे वो एक शत्रु राष्ट्र हो। हालांकि, मधेश के लोगों का स्टैंड सरकार के स्टैंड के साथ ही है।
नक़्शा राष्ट्रवाद को लाई नेपाल सरकार
भारत सरकार ने जब अपना नया नक़्शा जारी किया था तब सरकार ने कहा था कि वो बातचीत करेगी लेकिन जब लिपुलेख में सड़क का उद्घाटन हुआ तो नेपाल सरकार नक़्शा राष्ट्रवाद को लेकर आई। पूरे नेपाल में दो तरह की बातें चल रही हैं कि भारत के नए नक़्शे लाने पर इस पर कूटनीति नहीं की गई लेकिन केपी ओली सरकार के कोरोना से निपटने में नाकाम होने पर नक़्शे की राजनीति शुरू हो गई। नेपाल में राष्ट्रवाद का मतलब भारत विरोध की राजनीति और स्वर होता है. ऐसा कहा जा रहा है कि कोरोना से निपटने में नाकामी के लिए नक़्शे की राजनीति शुरू हुई। कालापानी के सवाल पर हर बार सरकारें चुप रहीं लेकिन अब मधेशियों से सवाल पूछे जा रहे हैं कि वो किस तरफ़ हैं. मधेशियों की राष्ट्रीयता पर सवाल उठाए जाते हैं जबकि मधेशी साफ़ कर चुके हैं कि वो राष्ट्रीय एकता के मुद्दे पर संघीय सरकार के साथ हैं। इसी के साथ ही दोनों देशों को खुली सीमा को बंद करने का एक मुद्दा मिल गया है. दोनों देशों में ऐसे कुछ लोग हैं जो भारत-नेपाल के बीच खुली सीमा नहीं चाहते हैं।
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